My Diary

गुमराह

वक्त ने मुझे गुमराह किया था 
यह नहीं है मेरी मंज़िल। 
जिस मोड़ में राह झूठा था 
उसकी खोज में है अब दिल। 

यहाँ से निकलजाने की सोचूँ 
या अपनी मंजिल को खोजूं ?
क्या करूँ ? क्या ना करूँ ? कभी 
सफर ही हत्म करना मैं सोचूँ। 

ज़िंदगी तो कुछ हल्का-सा था 
कब यह भारी से भारी होगया ?
फूलों से सजी राहों में कब 
काँटें बरसना ज़ारी होगया ?

मौसम की नादानियाँ ही देखो 
प्यास की एहसास ही बुझा दिल से 
तब जाके बरसा रहे है मुझ पर 
बड़ी ही मुद्दतों बाद मुश्किल से।

Hazi

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