My Diary

मौत और रस्में

है तो यह जीवन एक मिटती कहानी 
मौत से न कर सकोगे कोई बेईमानी। 
ख़ुशी के बचपन, सुख-दुःख भरी जवानी 
क्या पता, पचपन तक रहे ज़िंदगानी।

जीने के लिए खाना-पीना तो है ज़रूर
खाने के लिए जीना अब बने है दस्तूर।
भोजन मिले तो किसी की मौत भी मंज़ूर
करेगा हर गम दुःख भरी पेटपूजा से दूर। 

किसको परवाह था उनकी चाहतों की ,
उमंग भरी उनके दिल की जस्बातों की ,
कदर था किसको यहाँ उनकी बातों की ,
गुज़रने पर क्या फायदा इन बरसातों की?

कुछ देर की रोने-धोने बाद निभाए रस्में
फिर खाना-पीना ही तो असली रस्में।
जो खोया सचमुच, वक़्त नहीं उन्हें रोने
रिवाजों को पालने की भागदौड़ है उन्हें।


यह कविता मैंने बचपन में अपने एक रिश्तेदार के गुज़र जाने पर लिखी थी। पहले अपने घर में ऐसे मातम नहीं मनाये थे तो मेरेलिए यह अजीब सा लगा। उनकी मरने के बाद 40 दिन तक रोज़ उनकी पसंद की खाना सब को खिलाते हुए देखा। उनकी पसंद पूछके उनके जीते उनको खिलाया होता तो वे कितने खुश होती होगी। उनकी यादें बाटते उनकी किये हुए सेवाओं के मोल पहचाना और बोले हुए बातों की सही मतलब समझने लगे परिवारवाले। जब वे ज़िंदा थी तब उनकी बातें कडुआ लगता था सब बुराई ज़्यादा करते थे। उनकी मौत के बाद अच्छाई के सिवा कुछ नहीं याद आया किसीको। जीते वक़्त जो एक बार आके खैरियत नहीं पुँछ पाए, वो रिश्तेदारों की आना जाना ये 40 दिन लगी रही। यह बस रीति रिवाज है कोई दिलसे करते हैं और कोई न चाहते हुए। शायद हर कोई यह मरनेवाले के लिए नहीं, बल्कि जो ज़िंदा है उनको क्या लगेगा यह सोचके करते हैं । पर रोना धोना तो एक ही दिन होती हैं, पुरे दिन भी नहीं होती हैं शायद। फिर वहाँ रिश्तेदारों की मिलने की ख़ुशी, जलना, झगड़ना आदि ही होती हैं। आजकल की व्यस्त दुनिया में शादी और मौत की रस्म में ही तो दोस्तों से और रिश्तेदारों से मिलते है लोग।

जब मैं यह कविता लिखी तब यह मेरे ज़िंदगी की दूसरी ऐसी खटना थी। इसलिए शायद मैं इसको बहुत दिल पे लेलिया , जिसकी नतीजा यह कविता थी। उसके बाद एक और रिश्तेदार की मातम के वक़्त मेरी दादी ने कहा यह ही ज़िंदगी की दस्तूर हैं कोई मरजाता हैं तो उसका गम होते हैं सबको पर उसको भूलके ख़ुशी से जियोगे तो ही मरनेवाले का दिल भी खुश होंगे। आज इधर यहाँ जो मौजूद हैं उनमे से कोई कल नहीं होगा, ये बात हमें पता हैं। शायद वो मैं भी क्यों न हो वहां भी ऐसा ही होगा। कुछ देर रो लेंगे दुःख बाटेंगे फिर खाएँगे पीयेंगे मस्ती करेंगे फिर अलविदा कहेंगे।

दादी की यह बात सुनके तो मुझे लगा जो बात मुझे हज़म नहीं हो रही थी वो शायद सही ही हैं। पर अब भी मैं यह नहीं मानती की जो भूके थे उन्हें दो वक़्त के रोटी देने के बजाय,उनके मरने पर दावत देके उनकी प्यार जताना सही हैं।

Hazi

Recent Posts

ഒരേ പേരിൽ എട്ടിന്റെ പണി

25 വർഷത്തെ കസ്റ്റമർ കെയർ അനുഭവത്തിൽ പലതവണ നേരിട്ട ഒരു രസകരമായ പ്രശ്‌നം ആണ് ഒരേ പേരിലുള്ള ഉപഭോക്താക്കളുമായി എനിക്ക്…

1 week ago

Mujhe tum nazar se By Mehdi Hassan

‘Mujhe Tum Nazar Se Gira To Rahe Ho’ by Mehdi Hassan is one of my…

2 weeks ago

Sigmund Freud’s Quote on Egoism

"The ego is not master in its own house"- Sigmund Freud "The ego is not…

2 weeks ago

Apna Bana Le Piya Song Lyrics From Bhediya

https://www.youtube.com/watch?v=ElZfdU54Cp8 अरिजीत सिंह की आवाज में जादू हैं। दिन-रात सुनती रहूं तो भी मेरा दिल…

2 years ago

Ishq Bina Kya Marna Yaara Song Lyrics

https://www.youtube.com/watch?v=SqZbGOCuai4 मुझे अभी भी कल की जैसे याद हैं वो दिन जब पहली बार मैंने…

4 years ago

थोड़ी दूर तुम साथ चलो

उम्रभर किसीको कोई साथ न देतातुम थोड़ी दूर तो साथ चलो lमंजिल और राहें दोनों…

4 years ago

This website uses cookies.